Monday 17 June 2013

ऋग्वेद


प्रथम वेद विज्ञान  काण्ड है  गुण और  गुणी जहॉं  वर्णित  हैं
व्याख्यायित पदार्थ होता है ' ऋच स्तुतौ ' से ऋक् निर्मित है ।
ब्रह्म -  सदृश   व्यापक  वाणी   है  जिसका  ओर  न  छोर   है
ऋषि    में  स्थित  अमृत - वाणी  श्रेष्ठ   मनुज  हित  डोर   है ।

वेद ' हेतु ' है  सत्य - ज्ञान  का राज - मार्ग  है आत्मज्ञान का
सत्यासत्य  निरुपण  करके  वे  हैं अधिकारी ऋषि - पद का ।
धर्म  -  अर्थ  के   वे   ज्ञाता  हैं   सबको  जो   इसे   पढाते   हैं
पर -  उपकार  में  पारंगत  वे  ही  ऋषि -  पद   को  पाते   हैं  ।

देह  मनुज  ज्यों  धारण  करता  ईश्वर जग  का आकॉंक्षी  है
सर्व - व्याप्त  वह  परमेश्वर  ही  नर के  कर्मों  का  साक्षी  है ।
अन्तर्यामी  उस परमात्मा  से  जगरक्षित  आनन्द - रूप है
वे सभी  उपासक आनंदित हैं सतत समुज्ज्वल ज्ञान रूप है ।

श्रेष्ठ - मार्ग  पर जो नर चलते  समर्थ - सिध्द वे  ही बनते  हैं
विपरीत परिस्थितियों में  भी वे शोकानल में  नहीं जलते हैं ।
सूर्य - चन्द्र  और  उषा - सदृश  ही  सबको  सुख  दें ललनायें 
तभी  सुखी  वे  हो  सकती  हैं  अन्यथा  व्यथा - वेदना  पायें ।

विद्यानिधि   से   श्रेष्ठ  कुछ   नहीं  इससे  परे   नहीं  है  सुख
विद्या से ही सम्भव  होता सत्य -  सनातन सन्तति -  सुख ।
बिन  वर्षा  ज्यों  सुखी   न  कोई  रुक्ष  जगत  हो  जाता   है 
बिन - विद्या सुख - धर्म  नहीं  है उद्यम से नर विद्या पाता है ।

विद्वानों   के   पथ  पर  जाकर  जो   विद्वता  प्राप्त  करता   है
सबके  सुख  की  अभिलाषा  में  दानवीर  सम यश पाता  है ।
जो  अनीति  प्रतिकार  हैं  करते  दुष्टों  को  करते  हैं  ताडित
वे ही नर फिर इस  वसुधा पर यश - तन से रहते हैं जीवित ।

माता आचार्या  गुरु विग्रह वत् नित्य  निकटतम  स्थित हो
मानव पाए निज इच्छित पद विद्या- विवेक  नित वर्धित हो ।
जल  - धारा स्थिर  नहीं  रहती  कल - कल  करती बहती है
वैर - भाव पर क्षमा विजित हो ऋग्वेद - नीति यह कहती है ।

आठों - अंग सत्य - मय हो यदि  सत्यपूत  हो  यदि  वाणी
गौ  -  माता  की  पूजा -  रत  जो  सर्वात्मना  वही  वरदानी ।
जल सार्थक करता  है सागर  जन -  समूह  को दे जल दान
सत् - जन भी सागर - सम  होते  आश्रित जन को देते मान ।

सूर्य   सदृश  उत्तम   वाणी  से  आश्रित  जन  को   हर्षाते   हैं
वे  ही  होते  श्रेष्ठ  प्रतिष्ठित   परम - पद  भी  वे  नर  पाते  हैं  ।
ईश्वर  सबको  देता  प्रकाश  है  सृष्टि  समूची  धारण  करता
निज - प्रकाश से अन्य लोक रच सूर्य - सूर्य का वह है  कर्ता ।

यदि  वह  सूर्य   नहीं  रचता  तो  सृष्टि  अनूठी  बनती  कैसे
कौन  मेघ  से  जल  बरसाता  नभ  आलोकित  होता   कैसे ?
यज्ञानुष्ठान  से  अभिमन्त्रित जल तरु पादप पर सींचा जाए
उस औषधि  के रस को पीकर  धर्मानुष्ठान  से सुयश  बढायें ।

तन - मन आत्म- बली  बनकर  बनो  कृतज्ञ  करो  स्वीकार
व्यय   से   विद्या   वर्धित  होती   विद्या -  दान   करें   साभार ।
उद्यम में नित हो रुचि  नर की  ऋतु के प्रति वह अनुकूल रहे
अहित  कभी   न  करे  किसी   का  उपकारी  की  शरण  गहे ।

अनल सदृश जो दीप्ति  मान हो पुरुषार्थ  चार के हों उपदेशक
ऐसे विद्वत् - जन को नित  प्रति करें  प्रणाम बनें विद् सेवक ।
घृत   से  अनल  सदा   बढता  है   ब्रह्मचर्य  से   विद्या  बढ्ती
वेद  आचरण से बल बढता नित अभ्यास से कला निखरती ।

वेद -  वाङमय   को   हम  जानें   फिर  परमात्मा  को  जाने
उद्भव -  कर्ता  पालक -  नाशक   उसी   परम  को   पहचाने । 
सर्व - व्याप्त - पावन -  पुनीत  जो  वही  सत्य  है  शाश्वत है
स्वरुप  सत्य  है  उसी  ब्रह्म  का बनो उपासक वही सतत है ।

शुभ -  कर्मों   को   करने  वाले   श्रेष्ठ -  जन्म   को   पाते  हैं
जो   अधर्म  में  रत  रहते  हैं  निम्न  योनियों  में  जाते  हैं ।
पिता निज सुत को योग्य बनाता दिव्य गुणों का दे वरदान
भगवन ! वैसी ही उत्तम- विद्या शुभ गुण  कर्मों का दो ज्ञान । 

 शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ.ग. ]
 



7 comments:

  1. ऋगवेद का सरल परिचय, आभार..

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  2. बहुत सुन्दर शब्दों में वेद वचन की व्याख्या करती सुन्दर रचना
    latest post पिता
    LATEST POST जन्म ,मृत्यु और मोक्ष !

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  3. अद्भुत अनमोल संग्रहनीय प्रणाम

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  4. वेदों की अमर वाणी हमें सदा प्रेरित करती रहे..आभार इस सुंदर पोस्ट के लिए !

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  5. krga padhi mere kam ki chij hai ek nai soach hai

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