Monday 25 November 2013

सूक्त - 111

[ऋषि- अष्ट्रादंष्ट्र वैरूप । देवता- इन्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10074
मनीषिणः प्र भरध्वं मनीषां यथायथा मतयः सन्ति नृणाम् ।
इन्द्रं सत्यैरेरयामा कृतेभिः स हि वीरो गिर्वणस्युर्विदानं ॥1॥

जैसे - जैसे  मति  गति  पाती  वैसा  ही  करें  हम  अनुष्ठान ।
इन्द्र-देव सब भाव समझते अभिप्राय जानकर देते ज्ञान॥1॥

10075
ऋतस्य हि  सदसो  धीतिरद्यौत्सं  गार्ष्टेयो वृषभो गोभिरानट् ।
उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण  महान्ति  चित्सं विव्याचा रजांसि॥2॥

आदित्य- देव आलोक- प्रदाता रवि-रश्मि बनाती रोज वितान।
अंतरिक्ष  में  वह   रहता  है  सूर्य - देवता  सब   से  महान ॥2॥

10076
इन्द्रः किल  श्रुत्या  अस्य  वेद  स  हि जिष्णुः  पथिकृत्सूर्याय ।
आत्मेनां कृण्वन्नच्युतो भुवद्गोःपतिर्दिवः सनजा अप्रतीत:॥3॥

सूर्य - देव  का  पथ - प्रशस्त  है  वेद-वाक् आलोक- अच्युत है ।
इन्द्रदेव-स्वर्ग-अधिपति हैं सर्वाधिक-समर्थ अति अद्भुत हैं॥3॥

10077
इन्द्रो  मह्ना  महतो  अर्णवस्य  व्रतामिनादङ्गिरोभिर्गृणानः ।
पुरुणि चिन्नि तताना रजांसि दाधार यो धरुणं सत्यताता॥4॥

परमेश्वर  महिमा  से  महान  है  वह  सबको  सतत देखता है ।
हमको  जल - राशि  वही  देता है सभी को वही परखता है ॥4॥ 

10078
इन्द्रो दिवः प्रतिमानं  पृथिव्या  विश्वा  वेद  सवना हन्ति शुष्णम्।
महीं चिद्द्यामातनोत्सूर्येण चास्कम्भ चित्कम्भनेन स्कभीयान्॥5॥

अवनि - अंतरिक्ष  का  स्वामी  समस्त  वस्तुओं  का  ज्ञाता  है ।
सबको  प्रकाश  वह  ही  देता  है  सबका  धारक  है  विधाता  है ॥5॥

10079
वज्रेण   हि   वृत्रहा   वृत्रमस्तरदेवस्य   शूशुवानस्य   माया: ।
वि  धृष्णो  अत्र  धृषता  जधन्थाथाभवो मघवन्बाह्वोजा: ॥6॥ 

हे इन्द्र - देव तुम करो सुरक्षा दुष्ट - दमन अति आवश्यक है ।
मेघ  सतत जल देते हमको बादल ही जल का संवाहक है॥6॥

10080
सचन्त   यदुषसः  सूर्येण  चित्रामस्य  केतवो  रामविन्दन् ।
आ यन्नक्षत्रं  ददृशे  दिवो  न पुनर्यतो  नकिरध्दा नु वेद ॥7॥

ऊषा - काल में सूर्य - रश्मियॉं  धरती  पर किलकारी  भरती ।
दिन में  नक्षत्र छिपे रहते हैं सॉंझ में किरणें ऊपर चढती ॥7॥

10081
दूरं  किल  प्रथमा  जग्मुरासामिन्द्रस्य  या: प्रसवे  सस्त्रुरापः ।
क्व स्विदग्रं क्व बुध्न आसामापो मध्यं क्व वो नूनमन्तः॥8॥

बहता   पानी   दूर   भागता   पता   नहीं  आरम्भ   कहॉं   है ।
कुछ  भी  पता  नहीं  चल पाता मूल कहॉं है मध्य कहॉं है ॥8॥

10082
सृजः सिन्धूँरहिना  जग्रसानॉं  आदिदेवा:  प्र  विविज्रे  जवेन ।
मुमुक्षमाणा उत  या मुमुचेSधेदेता  न  रमन्ते  नितिक्ता: ॥9॥ 

रुकी  हुई  धारा  गति - पूर्वक  सर्वत्र  भागती  ही  रहती  है ।
प्रवाहित-प्राञ्जल-पावन- पानी कभी कहीं नहीं ठहरती है ॥9॥ 

10083
सध्रीची:सिन्धुमुशतीरिवायन्त्सनाज्जार आरितःपूर्भिदासाम्।
अस्तमा ते पार्थिवा वसून्यस्मे जग्मुः सूनृता इन्द्र पूर्वीः ॥10॥

प्रवाह-पूर्ण-पावन-जल-धारा  सागर  में  जाकर  खो  जाती  है ।
हे प्रभु वाणी का वैभव देना यह वाक्शक्ति मुझको भाती है॥10॥


 


 

2 comments:

  1. प्रवाह-पूर्ण-पावन-जल-धारा सागर में जाकर खो जाती है ।
    हे प्रभु वाणी का वैभव देना यह वाक्शक्ति मुझको भाती है॥10॥

    वाणी का यह वरदान बना रहे..

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  2. आपका अनुवाद अभिभूत कर जाता है।

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