Tuesday 3 December 2013

सूक्त - 102

[ऋषि- मुद्गल भार्म्यश्व । देवता- इन्द्र । छन्द- -त्रिष्टुप्--बृहती ।]

9976
प्र     ते     रथं     मिथूकृतमिन्द्रोSवतु     धृष्णुया ।
अस्मिन्नाजौ पुरुहूत श्रवाय्ये धनभक्षेषु नोSव।॥1॥

जब  भी  हम  आश्रय  विहीन हों हे प्रभु तुम ही रक्षा करना ।
हम  प्रेम  से  तुम्हें बुलाते हैं हम पर वरद - हस्त रखना॥1॥

9977
उत्स्म वातो वहति वासो अस्या अधिरथं यदजयत्सहस्त्रम् ।
रथीरभून्मुद्गलानी   गविष्टौ   भरे   कृतं  व्यचेदिन्द्रसेना ॥2॥

ऋषि - पत्नी  ने  शौर्य  दिखाया गो -रक्षा हेतु किया उपक्रम ।
पवन-देव भी प्रेरक बन गए गो-माता की पूजा करते हम॥2॥

9978
अन्तर्यच्छ      जिघांसतो        वज्रमिन्द्राभिदासतः ।
दासस्य वा मघवन्नार्यस्य वा सनुतर्यवया वधम् ॥3॥

दुष्ट-दलन अति आवश्यक है सज्जन की रक्षा बहुत जरूरी ।
यदि हम ऐसा न कर पाए तो होगी यह अपनी कमजोरी॥3॥

9979
उद्नो ह्रदमपपिबज्जज्जर्ह्रषाण: कूटं स्म तृंहदभिमातिमेति ।
प्र मुष्कभारः श्रव इच्छमानोSजिरं बाहू अभरत्सिषासन्॥4॥

शौर्य - शस्त्र  इस  नंदी  में  भी  भरा  है  साहस  अपरम्पार ।
मिट्टी को सींगों में धर-कर रिपु - दल-पर करता है वार॥4॥

9980
न्यक्रन्दयन्नुपयन्त   एनममेहयन्वृषभं    मध्य   आजेः ।
तेन  सूभर्वं  शतवत्सहतत्रं  गवां  मुद्गलः  प्रधने जिगाय॥5॥

अद्भुत निनाद था उस नंदी का वह ऋषि समीप ही खडा रहा।
जो  गो - मातायें  बंधक  थीं  उनकी  रक्षा  में लगा रहा ॥5॥

9981
ककर्दवे    वृषभो    युक्त    आसीदवावचीत्सारथिरस्य    केशी ।
दुधेर्युक्तस्य द्रवतःसहानस ऋच्छन्ति ष्मा निष्पदो मुद्गलानीम्॥6॥

नंदी रथ में  जुता हुआ था ऋषि-पत्नी के हाथों में लगाम ।
अब वह रथ दौडने लगा था पीछे सेना का ताम-झाम ॥6॥

9982
उत  प्रधिमुदहन्नस्य  विद्वानुपायुनग्वंसगमत्र  शिक्षन् ।
इन्द्र  उदावत्पतिमघ्न्यानामरंहत  पद्याभिः ककुद्मान्॥7॥

ऋषि ने किया नियंत्रित रथ को नंदी को प्रेम से सहलाया ।
देवों ने उसे सुरक्षा दी थी फिर रथ का परचम लहराया॥7॥

9983
शुनमष्ट्राव्यचरत्कपर्दी     वरत्रायां            दार्वानह्यमानः ।
नृम्णानि कृण्वन्बहवे जनाय गा:पस्पशानस्तविषीरधत्त॥8॥

आकर्षण-केन्द्र बन गया नंदी वस्त्राभूषण से सजा हुआ था ।
अनगिन लोगों को धन-वैभव नंदी स्वयं प्रदान किया था॥8॥

9984
इमं तं पश्य वृषभस्य युञ्जं काष्ठाया मध्ये द्रुघणं शयानम्।
येन  जिगाय  शतवत्सहत्रं  गवां  मुद्गलः   पृतनाज्येषु ॥9॥

युध्द-भूमि में गिरा हुआ यह दारु-निर्मित शस्त्र यहॉं है ।
इसी शस्त्र के द्वारा विजयी कई विजय-इतिहास यहॉं है॥9॥

9985
आरे अघा को न्वि1त्था ददर्श यं युञ्जन्ति तम्वा स्थापयन्ति।
नास्मै तृणं नोदकमा भरन्त्युत्तरो धुरो वहति प्रदेदिशत् ॥10॥

यह नंदी अजब अलौकिक था  घास  कभी  नहीं  खाता  था ।
रथ-भार वहन वह करता था स्वामी को विजय दिलाता था॥10॥

9986
परिवृक्तेव पतिविद्यमानट् पीप्याना कूचक्रेणेव सिञ्चनन् ।
एषैष्याक चिद्रथ्या जयेम सुमङ्गलं सिनवदस्तु सातम्॥11॥

ऋषि-पत्नी ने शक्ति-प्रदर्शन द्वारा पति-धन ग्रहण किया ।
हे ईश्वर हम भी विजयी हों तुमने ही सब कुछ हमें दिया॥11॥

9987
त्वं        विश्वस्य        जगतश्चक्षुरिन्द्रासि        चक्षुसः ।
वृषा यदांजि वृषणा सिषाससि चोदयन्वध्रिणा युजा॥12॥

सम्पूर्ण जगत के नैन तुम्हीं हो मेरे नैनों  की ज्योति तुम्हीं हो।
प्रभु मनो-कामना पूरी करना सभी-शक्ति के श्रोत तुम्हीं हो॥12॥    

    
           

1 comment:

  1. आदरणीया, बचपन में संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था जिसका भावार्थ कुछ इस तरह से था कि कुल के हित के लिये अपना व्यक्तिगत हित छोड़ देना चाहिये, मंडल के हित के लिये कुल के हित का त्याग कर देना चाहिये और इसी प्रकार उत्तरोत्तर वृहद उद्देश्य के लिये छोटे हित का त्याग कर देना चाहिये।
    आपकी जानकारी में यदि यह श्लोक है तो कृपया उपलब्ध करवायें, आभारी रहूँगा। मेरी ईमेल आईडी है - snjnja@gmail.com
    धन्यवाद।

    ReplyDelete