Sunday 22 December 2013

सूक्त - 85

[ऋषि- सूर्या-सावित्री । देवता- सोम । छन्द- अनुष्टुप् ।]

9667
सत्येनोत्तभिता    भूमिः    सूर्येणोत्तभिता    द्यौः ।
ऋतेनादि त्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधि श्रितः॥1॥

परमेश्वर  के  नीति - नियम  से  ही  यह  धरती  टिकी  हुई  है ।
आकाश वहीं है अपनी जगह नियम से ही जगती चल रही है॥1॥

9668
सोमेनादित्या बलिनः सोमेन पृथिवी मही ।
अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः॥2॥

आदित्य-देव आलोक-वान हैं सोम अन्न-धन के दाता हैं ।
शस्य-श्यामला यह धरती है सोम-देव बल के दाता हैं॥2॥

9669
सोमं मन्यते पपिवान्यत्संपिंषन्त्योषधिम् ।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन॥3॥

सोमलतादि वनस्पतियों की ओखद को जब पीसा जाता है ।
सोम उसी रस को कहते हैं अब यह दुर्लभ माना जाता है॥3॥

9670
आच्छद्विधानैर्गुपितो   बार्हतैः   सोम   रक्षितः ।
ग्राव्णामिच्छृण्वन्तिष्ठसि न ते अश्नाति पार्थिवः॥4॥

अग्नि-सोम  धरती  के रक्षक सोम  के रक्षक अग्नि-देव है ।
रक्षित  होने  के  कारण  ही सोम  हमें  उपलब्ध  नहीं  है॥4॥

9671
यत्त्वा  देव  प्रपिबन्ति  तत  आ  प्यायसे  पुनः ।
वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः॥5॥

सोम नाम की इस औषधि को रुचि से सभी ग्रहण करते हैं ।
सोम है रक्षित पवन-देव से वे प्रेम से रखवाली करते  हैं॥5॥

9672
रैभ्यासीदनुदेयी      नाराशंसी      न्योचनी ।
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम्॥6॥

रवि - तनया  ऊषा के विवाह में  रैभी  ऋचा सखी थी उसकी ।
सेविका-ऋचा थी नाराशंसी मंत्रों से बनी थी साडी जिसकी॥6॥

9673
चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अ अभ्यञ्जनम् ।
द्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥7॥

रवि-तनया जब ससुराल गई शुभ-चिन्तन परिधान पहनकर।
नयन  ही  ऊषा  का  काजल था वसुधा ही थी उसके जेवर॥7॥

9674
स्तोमा आसन्प्रतिधयः कुरीरं छन्द ओपशः ।
सूर्याया अश्विना वराग्निरासीत्पुरोगवः॥8॥

स्तवन  ही  रथ-चक्र-दण्ड  थे  कुरीर  छन्द  का अन्तः भाग ।
अश्विनीकुमार ऊषा के पति थे अग्नि-दूत थे अग्रिम-भाग॥8॥

9675
सोमो     वधूयुरर्भवदश्विनास्तामुभा     वरा ।
सूर्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसा सविताददात्॥9॥

अश्विनीकुमार   ऊषा   दोनों   ही   एक-दूजे   पर  थे  अनुरक्त ।
ऊषा को सोम भी चाहते थे पर अश्विनीकुमार ही थे उपयुक्त॥9॥

9676
मनो अस्या अन आसीद् द्यौरासीदुत च्छादः ।
शुक्रावनङ्वाहावास्तां यदयात्सूर्या ग्रहम्॥10॥

ऊषा  ससुराल  गई  तब  उसका  मन  ही  रथ  का  वाहन था ।
सूर्य-सोम रथ के वाहक थे नभ रथ का सुन्दर वितान था॥10॥

9677
ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावितः ।
श्रोत्रं  ते  चक्रे आस्तां दिवि पन्थाश्चराचरः॥11॥

श्रवण ही मन-रथ के पहिए थे ऋक्-साम-गान प्राञ्जल पहरा था।
रथ का पावन - पथ अन्तरिक्ष जो स्वर्णिम और रुपहला था॥11॥

9678
शुची  ते  चक्रे  यात्या  व्यानो  अक्ष आहतः ।
अनो  मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम्॥12॥

विदा - समय  रथ  के  दो  पहिए  दीख  रहे  थे  अति  उज्ज्वल ।
पवनदेव उस रथ की धुरी थे मन-रथ सुन्दर था दुग्ध-धवल॥12॥

9679
सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत् ।
अघासु  ह्न्यन्ते गावोSर्जुन्यो: पर्युह्यते॥13॥

पिता  सूर्य  ने  निज  पुत्री  को  धन-धान  से  किया मालामाल ।
मघा में गो-धन दान किया फाल्गुनी में फिर भेजा ससुराल॥13॥

9680
यदश्विना  पृच्छमानावयातं  त्रिचक्रेण  वहतुं  सूर्याया: ।
विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रःपितराववृणीत पूषा॥14॥

हे  अश्विनीकुमार  ऊषा  से  तुमने  विवाह -प्रस्ताव  किया  था ।
सब देवों का वरद-हस्त था सुत-पूषा ने स्वीकार किया था॥14॥

9681
यदयातं     शुभस्पती     वरेयं     सूर्यामुप ।
क्वैकं चक्रं वामासीत्क्व देष्ट्राय तस्थथुः॥15॥

हे  अश्विनीकुमार  जिस  समय  ऊषा - वरण  के  हेतु  गए  थे ।
उस समय तुम्हारा ध्यान कहॉ था प्रेम-गली में तुम खोए थे॥15॥

9682
द्वे  ते  चक्रे  सूर्ये  ब्रह्माण  ऋतुथा  विदुः ।
अथैकं चक्रं यद्गुहा तदध्दातय इद्विदुः॥16॥

हे  सूर्यदेव  ज्ञानी परिचित हैं कर्म-योग से रथ चलता है ।
ऋतु-अनुरूप वेग है उसका गोपनीय है पर कहता है॥16॥

9683
सूर्यायै   देवेभ्यो   मित्राय   वरुणाय   च ।
ये भूतस्य प्रचेतस इदं तेभ्योSकरं नमः॥17॥

सूर्य सभी के शुभ-चितक हैं सबका कल्याण वही करते हैं ।
सूर्य-देव सर्वदा स्तुत्य हैं हम सब उन्हें नमन करते हैं॥17॥

9684
पूर्वापरं चरतो माययैतो शिशू क्रीळन्तौ परि याति अध्वरम् ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुनः॥18॥

सूर्य- चन्द्र  आलोक - प्रदाता  हँसते  ही रहते हैं हरदम ।
कर्म-योग का पाठ-पढाते उन्हें नमन करते हैं  हम॥18॥

9685
नवोनवो   भवति   जायमानोSह्नां   केतुरुषसामेत्यगग्रम्।
भागं देवेभ्यो वि दधात्यायन्प्र चन्द्रमास्तिरते दीर्घमायुः॥19॥

चन्द्रदेव  प्रतिदिन  नवीन  हैं  हम  भी  प्रतिदिन  रहें नवीन ।
बिसराकर आगत-अतीत को वर्तमान में ही हो जायें लीन॥19॥

9686
सुकिंशुकं शल्मलीं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम् ।
आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्व॥20॥

शाल्मली-पलाश-तरु से निर्मित स्वर्णिम-रथ-पर होकर सवार।
रवि-तनया तुम पति-गृह जाओ जहॉ प्रेम-मय हो घर-द्वार॥20॥

9687
उदीर्ष्वातः  पतिवती  ह्ये3षा  विश्वावसु  नमसा  गीर्भिरीळे ।
अन्यामिच्छ पितृषदं व्यक्तां स ते भागो जनुषा तस्य विध्दि॥21॥

ऊषा का पाणिग्रहण हुआ और रवि - तनया ससुराल गई ।
सब लोग वहॉ से विदा हुए दायित्व निभाने और कई॥21॥

9688
उदीर्ष्वातो    विश्वावसो    नमसेळामहे    त्वा ।
अन्यामिच्छ प्रफर्व्यं1 सं जायां पत्या सृज॥22॥

हे  पण्डित  जी  आप  विदा  हों  हम  बारम्बार नमन करते हैं ।
विधि-विधान से ब्याह हुआ हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं॥22॥

9689
अनृक्षरा ऋजवः सन्तु पन्था येभिः सखायो यन्ति नो वरेयम्।
समर्यमा सं भगो नो निनीयात्सं जास्पत्यं सुयममस्तु देवा:॥23॥

मार्ग तुम्हारा सरल-सहज हो जीवन सुन्दर हो सुखकर हो ।
तुम दोनों सदा सुखी रहना मन में सब सुख सब रस हो॥23॥

9690
प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद्येन त्वाबध्नात्सविता सुशेवः।
ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेSरिष्टां त्वा सह पत्या दधामि॥24॥

वरुण-पाश से मुक्त रहो तुम पति-कुल का सदा बढाओ मान ।
अब अपना दायित्व निभाओ तुम हो सूरज की सन्तान॥24॥

9691 
प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबध्दाममुतस्करम् ।
यथेयममिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रा सुभगासति॥25॥

पितृ-गृह से तुम्हें अलग करते हैं ससुराल ही है तेरा परिवार ।
धीर-वीर सन्तति पाओ पति का घर हो सुख का आगार॥25॥

9692
पूषा  त्वेतो  नयतु  हस्तगृह्याश्विना  त्वा  प्र  वहतां  रथेन ।
गृहान्गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि॥26॥

हे पूषा माता को सादर लाओ अश्विनीकुमार निज रथ में बिठाओ।
निज-भवन हेतु प्रस्थान करो पति होने का कर्तव्य निभाओ॥26॥ 

9693
इह प्रियं प्रजया ते समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि।
एना पत्या तन्वं1सं सृजस्वाधा जिव्री विदथमा व व्दाथः॥27॥

सुख-सन्तति ससुराल में पाओ अपनों के प्रति कर्तव्य निभाओ।
पति  के सँग अद्वैत रहो तुम सबके हित में समय बिताओ॥27॥

9694
नीललोहितं    भवति    कृत्यासक्तिर्व्यज्यते ।
एधन्ते अस्या ज्ञातयः पतिर्बन्धेषु बध्यते॥28॥

वधू  जब  रजस्वला  होती  है  आसक्ति  अचानक  बढती  है ।
परिवार  बडा  हो  जाता  है  भव-बन्धन  की कडी जुडती है॥28॥

9695
परा  देहि  शामुल्यं  ब्रह्मभ्यो  वि  भजा  वसु ।
कृत्यैषा पद्वती भूत्व्या जाया विशते पतिम्॥29॥

तन - मन  को  सदा  स्वच्छ  रखें  पर-हित  के हेतु विचार करें ।
निज - कुटुम्ब  का ध्यान रखें  पति-सँग परस्पर बात करें॥29॥

9696
अश्रीरा     तनूर्भवति     रुशती     पापयामुया ।
पतिर्यद्वध्वो3 वाससा स्वमङ्गमभिधित्सते॥॥30॥

पति-पत्नी दोनों स्वस्थ रहें नीरोग रहे दोनों का तन-मन ।
परस्पर--पूरक हैं ये दोनों सुख-दुख बॉटें कर लें चिन्तन॥30॥

9697
ये  वध्वश्चन्द्रं  वहतुं  यक्ष्मा  यन्ति  जनादनु ।
पुनस्तान्यज्ञिया देवा नयन्तु यत आगता:॥31॥

पत्नी  का  सदा  ध्यान  रखें  वह  स्वस्थ  रहे  और सुखी रहे ।
ससुराल में बहू प्रसन्न रहे वह दुख से ग्रस्त कभी न रहे॥31॥

9698
मा विदन्परिपन्थिनो य आसीदन्ति दम्पती ।
सुगेभिरर्दुर्गमतीतामप     द्रान्त्वरातयः॥32॥

रोग - रूप  रिपु- दल  से  सबको  बच-कर  दूर  ही  रहना  है ।
हवा-बदलने हेतु भ्रमण हो पर सदा स्वस्थ  ही  रहना है॥32॥

9699
सुमङ्गलीरियं   वधूरिमां   समेत   पश्यत ।
सौभाग्यमस्यै दत्त्वायाथास्तं वि परेतन॥33॥

नई  बहू  शुभ  की  सूचक  है  सबसे  पाती  है  आशीर्वाद ।
लक्ष्मी-समान वह खुद होती है करती है सुखकर सम्वाद॥33॥

9700
तृष्टमेतत्कटुकमेतदपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे ।
सूर्यां यो ब्रह्मा विद्यात्स इद्वाधूयमर्हति॥॥34॥

बहूरानी  सँग  जिस  घर  में  कोई  अत्याचार  कभी करता है ।
वह निंदनीय है और त्याज्य कटुवचन यदि कोई कहता है॥34॥

9701
आशसनं      विशसनमथो      अधिविकर्तनम् ।
सूर्याया:पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति॥35॥

मलिन-मुख दिखती है रवि-तनया किसने उसका अपमान किया।
परिधान भी उसका फटा हुआ है किसने ऐसा अपराध किया॥35॥

9702
गृभ्णानि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः ।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवा:॥36॥

मैं  पति  हूँ  तुम  मेरी  पत्नी  आदर-अभिवादन  करता  हूँ ।
मुझे  छोडकर  कहीं  न  जाना  अनुरोध यही मैं करता हूँ॥36॥

9703
तां  पूषञ्छिवतमामेरयस्व  यस्यां  बीजं  मनुष्या3  वपन्ति ।
या न ऊरू उशती विश्रयाते यस्यामुशन्तः प्रहराम शेपम् ॥37॥

हे  प्रभु  तुम  शुभ-चिन्तन  देना  प्रजनन  का  पावन  प्रवाह हो ।
बीज गर्भ में धारण करने की अभिलाषा का शुभ-विचार हो॥37॥

9704
तुभ्यमग्रे   पर्यवहन्त्सूर्यां   वहतुना   सह ।
पुनः पतिभ्यो जायां दा अग्ने प्रजया सह॥38॥

हे अग्नि-देव आशीष  उसे  दें वह  माता  बन  कर्तव्य निभाये ।
सुख-सन्तति उसे प्रदान करें निज-कुटुम्ब सम्पूर्ण बनाये॥38॥

9705
पुनः     पत्नीमग्निरदादायुषा     सह     वर्चसा ।
दीर्घायुरस्या यः पतिर्जीवाति शरदः शतम्॥39॥

भगवान अग्नि ने पति-पत्नी को अनगिन-आशीर्वाद दिया है ।
चिर--जीवी हों सुख-स्वरूप हों हम पर यह उपकार किया है॥39॥

9706
सोमः  प्रथमो  विविदे  गन्धर्वो  विविद  उत्तरः ।
तृतीयो अनिष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा:॥40॥

हे ऊषा सोम की पत्नी हो तुम अब अपने कुटुम्ब में मिल जाओ ।
तुम दोनों पति-पत्नी मिलकर अब अपना कर्तव्य निभाओ॥40॥

9707
सोमो  ददद्  गन्धर्वाय  गन्धर्वो दददग्नये ।
रयिं च पुत्रॉश्चादादग्निर्मह्यमथो इमाम्॥41॥

कन्या  शान्त - सोम  होती  है  धीरे - धीरे  विकसित  होती है ।
जब  वह  जवान  हो  जाती  है  तब  उसकी  शादी होती है॥41॥

9708
इहैव स्तं मा   वि   यौष्टं   विश्वमायुर्व्यश्नुतम्  ।
क्रीळन्तौ  पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ  स्वे   गृहे॥42॥

हे  वर- वधू  साथ  में  रहना  सबके  सुख  का  साधन  बनना ।
तुम  कर्तव्य - धर्म  का  पालन  जीवन-भर  करते  रहना॥42॥ 

9709
आ  नः प्रजां  जनयतु  प्रजापतिराजरसाय  समनक्त्वर्यमा ।
अदुर्मङ्गलीः पतिलोकमा विश शं भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥43॥

हे  प्रभु  हमें   सुसन्तति  देना  हम साथ रहें घर हो जँगल हो ।
सब-कुछ शुभ-शुभ हो जीवन में पूरे कुटुम्ब का मंगल हो॥43॥

9710
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येदधि   शिवा   पशुभ्यः  सुमना:  सुवर्चा: ।
वीरसूरर्देवकामा  स्योना  शं  नो  भव  द्विपदे  शं चतुष्पदे॥44॥

हे  बहू  तुम  सदा  सुखी  रहना  तुम  सबको अपना-पन देना ।
सबके हित का चिन्तन कर ससुराल को तुम अपना लेना॥44॥

9711
इमां  त्वमिन्द्र  मीढ्वः  सुपुत्रां  सुभगां  कृणु ।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि॥45॥

परमेश्वर    यश  -  वैभव    देना    बँधा    रहे    पूरा    परिवार ।
प्राञ्जल-प्रेम-प्रवाह  यहॉ  हो  अन्न-धान का  हो  भण्डार॥45॥

9712
सम्राज्ञी   श्वशुरे   भव   सम्राज्ञी   श्वश्रवां   भव ।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु॥46॥

हे बहू तुम्हीं गृह-स्वामिनी हो सबका रखना समुचित ध्यान ।
सास-ननद-देवर सबको तुम मधुर-वचन का देना दान ॥46॥

9713
समञ्जन्तु  विश्वे  देवा: समापो  हृदयानि नौ ।
सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ॥47॥

तुम एक-दूसरे के पूरक हो पावन-पथ पर चलो परस्पर ।
भोजन-शयन और अर्चन भी साथ-साथ करना जीवन-भर॥47॥    

  
         
        

     

   
          


    

4 comments:

  1. प्रकृति के दर्शन कराती अद्भुत , जीवनसंदेश देती सूक्त

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  2. आपका यह अनुवाद संग्रहणीय है, साहित्य की अनमोल निधि है।

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  3. जीवनसंदेश देती सुंदर अभिव्यक्ति ...!
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    RECENT POST -: हम पंछी थे एक डाल के.

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  4. जीवन के लिए सुंदर संदेश देतीं पंक्तियाँ...बहुत बहुत आभार !

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