Thursday 19 December 2013

सूक्त - 86

[ऋषि- इन्द्र- इन्द्राणी । देवता- इन्द्र । छन्द- पंक्ति ।]

9714
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥1॥

विविध रूप में विविध योनियॉं यहॉं जन्म लेती मरती है ।
परमेश्वर आनन्द रूप है जगती उसकी स्तुति करती है॥1॥

9715
परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥2॥

हे प्रभु तुम अत्यन्त निकट हो और तुम्हीं अत्यन्त दूर ।
पर परमेश्वर को पा सकते हैं अपना सगा है वह भरपूर॥2॥

9716
किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
यस्मा इरस्यसीदु न्व1र्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥3॥

अद्भुत  आकर्षण  है  अपना  वह  रखता  है  पूरा  ध्यान ।
वह यश वैभव का स्वामी है अत्यन्त सूक्ष्म उत्कृष्ट महान ॥3॥

9717
यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥4॥

हे  प्रभु  तुम्हीं  सुरक्षा  देना  मेरे  मन  की  तमस  मिटाना ।
तुम  ही  तो  मेरे  अपने  हो  अपने  आप से मुझे मिलाना॥4॥

9718
प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।
शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥5॥

यह मन अति चञ्चल है भगवन भोग-मार्ग की रखता चाह ।
पर तुम मेरे परम-मित्र हो ले चलना सतत सत्य की राह ॥5॥

9719
न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।
न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यममीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥6॥

प्रकृति संगिनी बने हमारी वह भी हमें प्यार करती है ।
उससे कुछ भी छिपा नहीं है सर्व-समर्थ यही धरती है॥6॥

9720
उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।
भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥7॥

यह निसर्ग जननी  है सबकी  सबका  पालन  करती  है ।
इसकी गोद हमें प्यारी है मन की व्यथा यही हरती है॥7॥

9721
किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥8॥

पूजनीय है प्रकृति संगिनी विविध-विधा से यह कहती है ।
परममित्र  है  वह  परमेश्वर  बारम्बार  कहा करती है ॥8॥

9722
अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥9॥

प्रकृति  ब्रह्म  पति - पत्नी  सम  हैं  परमेश्वर की हैं आधार ।
दोनों मिलकर रचना करते दोनों महान हैं रचना-कार॥9॥

9723
संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥10॥

सृष्टि विधात्री यही प्रकृति है इसीलिए है सबकी माता ।
जैसे परमेश्वर पिता हमारे वैसे ही प्रकृति हमारी माता॥10॥

9724
इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥11॥

सबसे सुखी इन्द्राणी ही है उनके पति हैं अजर-अमर ।
परमेश्वर पावन प्रणम्य है आनन्द-रूप प्रत्येक प्रहर॥11॥

9725
नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेररृते ।
यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥12॥

हे  परमेश्वर  प्रकृति  पावनी  बिना  मित्र  के मन नहीं रमता ।
जग की रचना अति विचित्र है कण-कण में ब्रह्म रमण करता॥12॥

9726
वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥13॥

हे वैभवशाली सुख-रजनी हर वस्तु यहॉ पर नश्वर है ।
परमपूज्य वह प्रभु प्रणम्य है केवल वही अनश्वर है ॥13॥ 

9727
उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥14॥

सुन्दर शरीर के साथ मनुज इस दुनियॉ में प्रवेश करता है ।
कर्म-मार्ग से सुख-दुख पाता फिर वह देह त्याग करता है॥14॥

9728
वृषभो न तिग्मशृङ्गोSन्तर्यूथेषु रोरुवत् ।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥15॥

जीव यहॉ सुख की इच्छा से मन इन्द्रिय के सँग चलता है ।
विविध विधा की रचना करता प्रेम-मार्ग पर वह बढता है॥15॥

9729
न सेशे यस्य रम्बतेSरन्तरा सक्थ्या3 कपृत् ।
सेदीशे यस्य रोमशं निशेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥16॥

मन इन्द्रिय बेकाबू चलते बन्धन स्वीकार नहीं करते ।
पर अँकुश तो आवश्यक है मन को ढील नहीं दे सकते ॥16॥

9730
न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेSन्तरा सक्थ्या3 कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥17॥

समुचित सम्भोग नहीं होने पर वीर्य क्षरित हो जाता है ।
योनि-मार्ग से भीतर जाकर ही वीर्य बीज बन पाता है॥17॥

9731
अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।
असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥18॥

हे  परम-मित्र  हे  परमेश्वर ज्योति-गली  में  तुम  पहुँचाओ ।
आत्म-ज्ञान हमको समझाओ पास रहो तुम दूर न जाओ॥18॥

9732
अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् ।
पिबामि पाकसुत्वनोSभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥19॥

ज्ञान - कर्म  के  पथ  पर  चलकर  निज  स्वरूप को पहचानें ।
हम भी निर्बीज समाधि-समायें पावन आत्म-ज्ञान को जानें॥19॥

9733
धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
नेदीयसो वृषाकपेSस्तमेहि गृहॉं उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥20॥

देह जीर्ण जब हो जाता है प्रभु की शरण में वह जाता है ।
कालान्तर में वही जीव तब पुनः देह धरकर आता है॥20॥

9734
पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
य एष स्वप्ननंशनोSस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥21॥

पुनः देह पाकर इस जग में भोग-प्राप्ति में जुट जाता है ।
ज्ञान-मार्ग में जब जाता है तभी मोक्ष को वह पाता है॥21॥

9735
यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
क्व1 स्य पुल्वघो मृगःकमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥22॥

हे  परमेश्वर  शरण  में  ले लो हम भी मोक्ष द्वार पर जायें ।
तुम चेतन आनन्द-रूप हो हम भी प्रभु आनन्द पथ पायें॥22॥

9736
पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥23॥

प्रकृति - पावनी जग - रचना में सप्रयास उपक्रम है करती ।
बिन-पीडा सृजन नहीं होता सार यही सम्प्रेषित करती ॥23॥     
              
  
       

2 comments:

  1. हे प्रभु तुम अत्यन्त निकट हो और तुम्हीं अत्यन्त दूर ।
    पर परमेश्वर को पा सकते हैं अपना सगा है वह भरपूर॥2॥

    परम को नमन...

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