Sunday 12 January 2014

सूक्त - 63

[ऋषि- गयप्लात । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

9444
परावतो ये दिधिषन्त आप्यं मनुप्रीतासो जनिमा विवस्वतः ।
ययातेर्ये नहुष्यस्य बहिर्षि देवा आसते ते अधि ब्रुवन्तु नः॥1॥

देव - लोक  से  देव  पधारे  सख्य - भाव  सिखलाते  हैं ।
मनुज-मात्र को मित्र मानते पावन-पथ पर पहुँचाते हैं ॥1॥

9445
विश्वा  हि  वो  नमस्यानि  वन्द्या  नामानि  देवा उत यज्ञियानि वः।
ये स्थ जाता अदितेरद्भय्स्परि ये पृथिव्यास्ते म इह श्रुता हवम्॥2॥

सभी   देव   गण   पूज्य   हमारे   विविध - दिशा   से   आए   हैं ।
अभिवादन   है   देवगणों   का   जिनके   दर्शन   हम   पाए   हैं॥2॥

9446
येभ्यो   माता   मधुमत्पिन्वते   पयः   पीयूषं   द्यौरदितिरद्रिबर्हा: ।
उक्थशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्तॉ आदित्यॉ अनु मदा स्वस्तये॥3॥

अमृत - मय  यह  अवनि  हमारी  मेघ - युक्त - नभ  जल  देता  है ।
देवताओं  में  दिव्य - शक्ति  है  सुमिरन  ही  भय  हर  लेता  है ॥3॥

9447
नृचक्षसो  अनिमिषन्तो  अर्हणा  बृहद्देवासो  अमृतत्वमानशुः ।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो  वर्ष्माणं वसते स्वस्तये॥4॥

सज्जन  सत्कर्म  सदा  करता  है  उपासना  करता  रहता  है ।
उसकी  महिमा  बढती  जाती  जन - कल्याण  वही  करता  है ॥4॥

9448
सम्राजो  ये  सुवृधो  यज्ञमाययुरपरिह्वृता  दधिरे  दिवि  क्षयम् ।
तॉ आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्यॉ अदितिं स्वस्तये॥॥5॥

न्यौता  देने  पर  देव - शक्तियॉ  हषित  होकर  आ  जाती  हैं ।
हम पर सदा अनुग्रह करती अनगिन आशीष लिए आती हैं ॥5॥

9449
को वः स्तोमं राधति यं जुजोषथ विश्वे देवासो मनुषो यति ष्ठन ।
को  वोSध्वरं  तुविजाता अरं करद्यो नः पर्षदत्यंहःस्वस्तये ॥6॥

पूजनीय  है  व्यक्ति  वही  जो  देश - धर्म  का  रखता  ध्यान ।
जिसको  इसका  भान  नहीं है वह जीकर भी मृतक-समान ॥6॥

9450
येभ्यो होत्रां प्रथमामायेजे मनुः समिध्दाग्निर्मनसा सप्त होत्रिभिः।
त आदित्या अभयं शर्म यच्छत सुगा नः कर्त सुपथा स्वस्तये॥7॥

परमेश्वर   ही   पूजनीय   है   वह   ही   देता   है   अभय - दान ।
हवि - भोग  उसे  अर्पित  करते  हैं  सौंप  रहे हैं उसे कमान ॥7॥

9451
य  ईशिरे  भुवनस्य  प्रचेतसो विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च मन्तवः ।
ते  नः  कृतादकृतादेनसस्पर्यद्या  देवासः  पिपृता  स्वस्तये ॥8॥

ज्ञानी  का  सान्निध्य  मिले  तो  मन  के  दोष  दूर  हो  जाते ।
वे  कल्याण  सदा  करते  हैं  अनिष्ट  आदि  से  वही बचाते ॥8॥

9452
भरेष्विन्द्रं   सुहवं   हवामहेंSहोमुचं   सुकृतं   दैन्यं   जनम्  ।
अग्निं मित्रं वरुणं सातये भगं द्यावापृथिवी मरुतः स्वस्तये॥9॥

सज्जनता  हम  सबको  प्रिय  है उनका सँग  भला  लगता  है ।
परमेश्वर  सबका  अपना  है  सबका  हित  वह ही करता है ॥9॥

9453
सुत्रामाणं  पृथिवीं  द्यामनेहसं  सुशर्माणमदितिं  सुप्रणीतिम् ।
दैवीं  नावं  स्वरित्रामनागसमस्त्रवन्तीमा  रुहेमा स्वस्तये॥10॥

सबकी  रक्षा  करना  प्रभुवर  जीवन  भर  रहे  तुम्हारा  साथ ।
प्रभु  पावन  पथ  पर  पहुँचाना कर देना तुम हमें सनाथ ॥10॥

9454
विश्वे यजत्रा अधि वोचतोतये त्रायध्वं नो दुरेवाया अभिह्रुतः।
सत्यया वो देवहूत्या हुवेम शृण्यतो देवा अवसे स्वस्तये ॥11॥

हे परमेश्वर ध्येय बताना कहीं राह में भटक न जाऊँ ।
प्रभु तुम मेरी भी रक्षा करना मैं भी भूले को डगर बताऊँ ॥11॥

9455
अपामीवामप  विश्वामनाहुतिमपारातिं  दुर्विदत्रामघायतः ।
आरे देवा द्वेषो अस्मद्युयोतनोरु णः शर्म यच्छता स्वस्तये॥12॥

जो  शूल - सदृश  दुख  देते  हैं  उनसे  सदा  दूर  ही  रखना ।
अत्याचारी  दुष्ट - जनों  से  तुम्हीं  बचाना  रक्षा  करना ॥12॥

9456
अरिष्टः स  मर्तो  विश्व  एधते  प्र  प्रजाभिर्जायते  धर्मणस्परि ।
यमादित्यासो नयथा सुनीतिभिरति विश्वानि दुरिता स्वस्तये॥13॥

प्रभु सत्पथ पर प्रेरित करना अशुभ-निवारण तुम ही करना ।
कर्म - योग तुम ही सिखलाना सत्य-राह पर ही ले चलना ॥13॥

9457
यं  देवासोSवथ  वाजसातौ  यं  शूरसाता  मरुतो  हिते  धने ।
प्रातर्यावाणं रथमिन्द्र सानसिमरिष्यन्तमा रुहेमा स्वस्तये॥14॥

धन भी जीवन में आवश्यक है पर वह नीति-न्याय से आए ।
ऊषा-काल की शुभ वेला हो सत्कर्मों का फल मिल जाए॥14॥

9458
स्वस्ति  नः  पथ्यासु  धन्वसु  स्वस्त्य1प्सु  वृजने स्वर्वति ।
स्वस्ति नः पुत्रकृथेषु योनिषु स्वस्ति राये मरुतो दधातन॥15॥

राह  भले  ऊबड - खाबड  हो  या  फिर  हो  नीचे - ऊपर ।
भले ही कॉटे हो उस पथ पर पर वह ही हो जाए हितकर॥15॥

9459
स्वस्तिरिध्दि  प्रपथे  श्रेष्ठा  रेक्णस्वत्यभि  या  वाममेति ।
सा नो अमा सो अरणे नि पातु स्वावेशा भवतु देवगोपा ॥16॥

यह  वसुधा  सब  कुछ  देती  है  सबका  मँगल  ही करती है ।
सुख-वैभव  प्रदान  करती है वह ही तो आश्रय बनती है॥16॥

9460
एवा  प्लतेः  सूनुरवीवृधद्वो  विश्व आदित्या अदिते मनीषी ।
ईशानासो  नरो  अमर्त्येनास्तावि  जनो दिव्यो गयेन ॥17॥

हे  परमेश्वर  हे  परममित्र  तुम  सदा अनुग्रह  करते  रहना ।
हे प्रभु तुम यश-वैभव देना तुम हम सबकी पीडा हरना॥17॥       
       
       

 

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