Saturday 4 January 2014

सूक्त - 71

[ऋषि- बृहस्पति आङ्गिरस । देवता- ज्ञान । छन्द- त्रिष्टुप् - जगती ।]

9555
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधाना: ।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥1॥

जग की रचना होने पर जिस प्रभु से प्रेरणा पाते हैं ।
वह वाणी ही प्रथम वाक् है हम उसको ही अपनाते हैं॥1॥

9556
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि॥2॥

जैसे चलनी से सत्तू को महीन बना-कर हम खाते हैं ।
वैसे ही मन से विचार करके वाणी व्यवहार में लाते हैं॥2॥

9557
यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम् ।
तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते॥3॥

विद्वान जानते वाणी- वैभव ऋषि भी इसे ग्रहण करते हैं ।
तदनन्तर यह व्यवहार में आता चार-वेद यह ही कहते हैं॥3॥

9558
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वं1 वि सस्त्रे जायेव पत्य उशती सुवासा:॥4॥

यह  वाणी  अत्यन्त  गूढ  है  रहस्य  जानना  सरल नहीं है ।
जब  द्वार  खोलती हैं वाक्-देवी ज्ञान-कलेवर यहीं कहीं है॥4॥

9559
उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमाहुर्नैनं हिन्वन्त्यपि वाजिनेषु ।
अधेन्वा चरति माययैष वाचं शुश्रुवॉ अफलामपुष्पाम्॥5॥

ज्ञानी विचार-विनिमय करते हैं ये वाणी का मर्म समझते हैं।
वाक्-वैभव और शब्दाडम्बर धीर इसका विश्लेषण करते हैं॥5॥

9560
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति।
यदीं शृणोत्यलकं शृणोति  नहि  प्रवेद  सुकृतस्य पन्थाम्॥6॥

जो स्वाध्याय नहीं करता है वह सुख से वञ्चित रहता है ।
जो सत्कर्म सदा करता है निज-जीवन वह ही गढता है॥6॥

9561
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः ।
आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे हृदाइव स्नात्वा उ त्वे ददृश्रे॥7॥

जिसकी जैसी सोच होती है मति वैसी ही बीज बोती है ।
चिन्तन-अनुरूप कर्म होते हैं कर्मानुसार ही गति होती है॥7॥

9562
हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यद् ब्राह्मणा: संयजन्ते सखायः ।
अत्राह त्वं वि जहुर्वेद्याभिरोहब्रह्माणो वि चरन्त्यु त्वे।॥8॥

जब एक समान योग्यता वाले एक दिशा में ही जाते हैं ।
वे निज-अनुभव के सँग जीते हैं कर्मानुरूप फल पाते हैं॥8॥

9563
इमे  ये  नार्वाङ्न  परश्चरन्ति  न  ब्राह्मणासो न सुतेकरासः ।
त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः॥9॥

जो अपरा-परा में पारंगत हैं वे ज्ञान के सच्चे अधिकारी हैं ।
कुछ सेवाभावी भी मिलते हैं जो जन-प्रिय पर-उपकारी हैं॥9॥

9564
सर्वे  नन्दन्ति  यशसागतेन  सभासाहेन  सख्या सखायः ।
किल्विषस्पृत्पितुषणिर्ह्येषामरं हितो भवति वाजिनाय॥10॥

ज्ञानी  मित्रों  सँग  मोद-मनाते  यश-पद  पाकर  हर्षाते  हैं ।
पर अन्न-दान करने वाले अक्सर प्रभु  को पा जाते हैं ॥10॥

9565

ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान्गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु।
ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां वि मिमीत उ त्वः॥11॥


जो वेद-ऋचा उच्चारण कर ले नित-प्रति करता हो साम-गान।
जो यज्ञ-विधान का ज्ञाता हो जो जाने प्रायश्चित-विधान॥11॥

3 comments:

  1. जीवन जीने के हैं सुखद सूत्र

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  2. वाणी और कर्म ही प्रधान है...सुन्दर दोहे...

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  3. जो स्वाध्याय नहीं करता है वह सुख से वञ्चित रहता है ।
    जो सत्कर्म सदा करता है निज-जीवन वह ही गढता है॥6॥
    सही सलाह

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