Wednesday 16 April 2014

सूक्त - 81

[ऋषि- वसु भारद्वाज । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती - त्रिष्टुप् ।]

8397
प्र  सोमस्य  पवमानस्योर्मय  इन्द्रस्य  यन्ति  जठरं  सुपेशसः ।
दध्ना यदीमुन्नीता यशसा गवां दानाय शूरमुदमन्दिषुःसुता:॥1॥

पूजनीय पावन परमेश्वर सज्जन को उत्साहित  करते  हैं ।
अन्तर्मन निर्मल करते हैं भक्तों को संस्कारित करते हैं॥1॥

8398
अच्छा हि सोमः कलशॉ असिष्यददत्यो न वोळ्हा रघुवर्तनिर्वृषा ।
अथा देवानामुभयस्य जन्मनो विद्वॉ अश्नोत्यमुत इतश्च यत् ॥2॥

यदि पथ पर आगे बढना है ज्ञान- कर्म दो ही  साधन  है ।
हे प्रभु तुम ही दीक्षित करना शतशः तेरा आराधन है ॥2॥

8399
आ नः सोम  पवमानः किरा  वस्विन्दो  भव  मघवा  राधसो  महः ।
शिक्षा वयोधो वसवे सु चेतना मा नो गयमारे अस्मत्परा सिचः॥3॥

वह  परमेश्वर  वैभव - शाली  है  हमें  भी  वैभव  का  दो  दान ।
ज्ञान-वान तुम हमें बनाओ शुभ-धन  हमको  करो प्रदान ॥3॥

8400
आ नः पूषा पवमानः सुरातयो मित्रो गच्छन्तु वरुणः सजोषसः।
बृहस्पतिर्मरुतो  वायुरश्विना त्वष्टा सविता सुयमा सरस्वती॥4॥

परमात्मा  हमसे  यह  कहते  हैं  सत् - संगति  है  सबसे  उत्तम । 
तुम नीति-निपुण बन  जाओ जग को पथ बतलाओ अनुपम॥4॥

8401
उभे द्यावापृथिवी विश्वमिन्वे अर्यमा देवो अदितिर्विधाता ।
भगो  नृशंस उर्व1न्तरिक्ष विश्वे देवा: पवमानं जुषन्त॥5॥

हे परमात्मा पावन मन दे दो अज्ञान तमस को तुम्हीं मिटाओ ।
तु सभी कलाओं के ज्ञाता हो हमको भी कुछ तो सिखलाओ॥5॥ 

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