Sunday 25 May 2014

सूक्त - 28

[ऋषि- प्रियमेध आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7913
एष वाजी हितो नृभिर्विश्वविन्मनसस्पतिः। अव्यो वारं वि धावति॥1॥

मन  के  निरोध  से  बल  बढता  है  मन  न  भटके  रखना  है ध्यान ।
सान्निध्य आपका  पायें  भगवन  मिट  जाए  मन  का  अज्ञान ॥1॥

7914
एष पवित्रे अक्षरत् सोमो देवेभ्यः सुतः। विश्वा धामान्याविशन् ॥2॥

कण - कण  में  वह  बसा  हुआ  है  परमात्मा  आलोक - प्रदाता ।
देह - धाम  में  वह  रहता  है  सब  का  प्रेरक  वही  विधाता  ॥2॥

7915
एष   देवः  शुभायतेSधि   योनावमर्त्यः ।  वृत्रहा   देववीतमः ॥3॥

सर्व - व्याप्त है वह अविनाशी अज्ञान - तमस को वही मिटाता ।
हम  सब को प्रोत्साहित करता ज्ञानालोक वही  दिखलाता ॥3॥

7916
एष वृषा कनिक्रदद्दशभिर्जामिभिर्यतः। अभि द्रोणानि धावति॥4॥

स्थूल - सूक्ष्म दस - भूतों में वह स्थिर हो कर सचमुच रहता  है ।
चारों  ओर  वही  रहता  है  सम्वाद  सभी  से  वह  करता  है ॥4॥

7917
एष सूर्यमरोचयत् पवमानो विचर्षणिः। विश्वा धामानि विश्ववित्॥5॥

उसके प्रकाश से सभी प्रकाशित यह जग आलोक उसी से पाता ।
वह ही सब का पोषण करता है वही पिता  है  वह  ही  माता ॥5॥

7918
एष  शुष्म्यदाभ्यः सोमः पुनानो अर्षति । देवावीरघशंसहा ॥6॥

खट - रागों से मुक्त हुए बिन सत् - विचार मन  में  नहीं  रहते ।
जिसका अन्तर्मन पावन है प्रभु उसके ही   मन  में  बसते ॥6॥

2 comments:

  1. लाजवाब हो जाते हैं यहाँ आकर ! मंगलकामनाएं आपको !

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  2. कण - कण में वह बसा हुआ है परमात्मा आलोक - प्रदाता ।
    देह - धाम में वह रहता है सब का प्रेरक वही विधाता ॥2॥
    जो भीतर है वही बाहर है

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