Friday 25 July 2014

वरुण देव

विविध रूप में वरुण - देव तुम  वसुधा का हित करते हो
देकर निज अनुदान जगत को नभ - जल  देते रहते हो ।

सर सरिता सागर सब के सब करते  हैं वन्दना  तुम्हारी
निर्झरणी भी मीठी  धुन  में  करती  है मनुहार तुम्हारी ।

पावस - घन  दुन्दुभि बजाता करता है अभिषेक तुम्हारा
अवनि - श्रोत से निसृत होता अक्षय पावन रूप तुम्हारा ।

नर तन में अस्तित्व तुम्हारा व्यापक विविध विधा में है
सुख दुख प्रस्तुति में रूप तुम्हारा प्रकट नयन बानी में है ।

जहॉ अशेष  शब्द  होते  हैं  नयन - गिरा से तुम झरते हो
शेष भावनाओं को तुम ही छलक - छलक  भाषा  देते हो ।

नयन तुम्हारे माध्यम से जब कुछ  कहने  की चेष्टा करते
भाषा  - बन्धन  तोड  शाश्वत  भावों  से  सम्प्रेषित  होते ।

विविध निम्न कर्मों से जब नर अपना दामन मैला करता
ऑखों का जल प्रायश्चित से दाग  मनुज  के धोया करता ।

कहता है यह कौन नयन - जल निर्बलता का है परिचायक
यह अद्भुत उपहार प्रकृति का शुभ-भावों का है प्रतिपालक ।

शस्य - श्यामला भूमि तुम्हीं से तुमसे है सन्तुलन धरा का
तुमसे भावों की उज्ज्वलता तुम ही तो हो स्नेह - शलाका ।

आओ वरुण - देव आ जाओ  मेरे  नयनों  में  नीड  बना लो
अपनों ने तज दिया क्या करूँ तुम ही मुझको मीत बना लो ।


5 comments:

  1. जहॉ अशेष शब्द होते हैं नयन - गिरा से तुम झरते हो
    शेष भावनाओं को तुम ही छलक - छलक भाषा देते हो ।

    बहुत सुंदर पंक्तियाँ ...

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  2. पकड़ वारि की धार झूलता रे मेरा मन -आज यहाँ भी वर्षा झब्बर झब्बर हुयी है -अच्छी कविता!

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  3. आपके भाव-प्रदेश में प्रवेश कर कृतार्थ हुआ!

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